दोहा: कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस | सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ||
प्रसंग: मत बताओ कि क्या जानते हो, दिखाओ कि तुम हो क्या? "सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश" का क्या आशय है? संत कबीर क्यों बता रहें है कि पंडित और भक्त में समर्पण होना चाहिए?