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'कविता मैं स्त्री.. बदलते समय की आवाज़' पर विमर्श, साहित्य आजतक पर 3 प्रतिष्ठित कवयित्रियों के साथ
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00:00तो देखिए, आपना पुरे मंच में इस वक्त नारी शक्ती देख रहे होंगे
00:04एक शक्ती जिन्नोंने अनौंस किया, बाखी ये 3 शक्तियां और मैं भी अपने आप को शक्ती ही मान रही हूँ
00:08तीन शक्तिया हमाई साथ बेटी हैं
00:10और हमारे सेशन का नाम है कविता में इस्त्री, बदलते समय की आवास, तो इस्त्रियों की situation शायद जो इस्त्रिया है वो खुबी बता सकती है, और इसलिए ये महिलाएं जो अपने struggle, अपने अनुभाओं को कल्मों के माध्यम से रच रही है, लिख रही है, तो मैं चाहूंग
00:40अमारे दर्श्रा कहेंना वो इसी वक्त का इंतजार कर रहे हैं, जी जी बिल्कुल, आपने शही कहार पिता कि नारी की आवाज कोई नहीं दबा सकता, और
01:04बदलते स्वर की बात है तो मैं अपनी कविता शुरू ही करती हूँ नारी शक्ति को प्रणाम करते हुए और यह कहते हुए कि कोई भले ही कहे कि स्त्रियां घर बनाती है लेकिन घर उनका नहीं होता अंततह निश्काशित वही होती है अगर कभी जुरत पड़े और मैं कहती ह�
01:34जो स्वरूप है उसको देखें रेगिस्तान की तप्तिरेत में अपनी चुनरी बिछा उस पर लोटा भर पानी और उसी पर रोटियां रख हथेली से आखों को चाया देते हुए औरत ने एन सूरज की नाक के नीचे एक घर बना लिया
02:00ये घर घर भी हो सकता है और बांगला में तो इसे संसार भी कहते हैं मैं इसे पूरे ब्रमान और उससे भी आगे की चीज की तरह देखती हूँ और अब अगली कविता
02:13मनुश्य को और खास सोट से औरत को देखने के लिए उसके हृदे के अंदर उसके मन के अंदर उतरना और उसको पूरम पूर उसके पूरे रूप को देखना बड़ा जरूरी होता है
02:33लोग मौना लिसा की मुसकान देखते हैं लेकिन मैं देखती हूँ मौना लिसा की आँखे मुसकान है लेकिन आँखे
02:43क्या था उस दृष्टी में उस मुसकान में की मन बंद कर रह गया
02:51क्या था उस दृष्टी में उस मुसकान में की मन बंद कर रह गया वह जो बूंद छिपी थी आँख की कोर में उसी में तिरकर जा पहुची थी
03:06मन की अतल गहराईयों में जहां एक आत्मा हत्प्रप थी जहां एक आत्मा हत्प्रप थी प्रलोभन से पीड़ा से इरश्या से द्वंदो से
03:22वह जो नामालूम सी जरासी तिर्यक मुसकान देखते हो ना मुनालिसा के चहरे पर
03:36वह एक कहानी है औरत को मिथक में बदले जाने की कहानी हम मुनालिसा की मुसकान देखते हैं
03:48उस खिर्दे में क्या था उसको देखना बहुत बहुत जरूरी है
03:52मेरी तीसरी कविता एक अलग स्वर लिये हुए है इस कविता का शीर्चक है बेटी
04:02पिता का हाथ पकड़के चलती बेटी पिता के कद की उचाई और कदमों की मजबूती महसूस थी अपनी रीड सीधी कर कदम साधती है
04:17पिता का हाथ पकड़के चलती बेटी पिता के कद की उचाई और कदमों की मजबूती महसूस थी अपनी रीड सीधी कर कदम साधती है
04:36कहीं पीछी ना छूट जाए इस डर से चाल तेज करती लगभग दोड़ती चलती है पिता के कदमों से कदम मिलाके
04:47अचानक पिता बेटी को खुद से दो कदम आगे पाते हैं
05:01अपनी उमलियों पर नन्हे हाथों का दबाब महसूस करते वे खिचते चले जाते हैं बेटी के पीछे
05:09चान्द आगे भागता है बेटी पीछे और पिता पिता कदम से कदम मिलाने की होड में कुछ कापते कुछ खीजते कुछ मन ही मन मुस्काते
05:23क्या बात यह जो चौथी कविता है यह पूरी कविता नहीं है इसका कुछ हिस्सा है और यह मैं खास्तोर से इसलिए सुनाने जा रही हूँ
05:34क्योंकि यह कविता है बांगलादेशी ब्लॉगर अविजत के उपर लिखी थी मैंने पिरामिडो की तहों में मेरे संकला ने उसमें यह संकलित है और शेख हसीना को हम देखी रहे हैं कि उनके साथ क्या हो रहा है और यह जब कविता लिखी गई थी करीब 2017-18 में तब इस ब
06:04युद्ध किया था और उसके खिलाफ लिखा था तो इसको इसकी पत्नी के सामने मार दिया गया था बांगलादेश में कुछ हिस्सा है ओ अविजत तुमने तर्क जारी रखा कि तुम नहीं मानते किसी देवी देवता को कि तुम्हें खुद पर भरोसा है और आस्था है मन�
06:34कि तुम तिर जाओगे यह भवसागर विवेक की डोंगी पर तर्क के पत्वार से सच कहा था तुमने अविजित कि भय के नीव पर बनी प्रीति की दिवार भरभरा ही जाती है तर्क के प्रहार से तुम्हारे खून की एक एक बूंद
06:58मांगती है हमसे हिसाब हमारी प्रार्थनाओं की निरर्थक्ता का हमारे देवताओं से
07:10आज तुम एक सवाल हो अविजित आज तुम एक सवाल हो एक अनसुल्जा सवाल भय की निव पटिकी किसी भी आस्था पर टंगा एक रक्त रंजित सवाल ओ अविजित
07:33अब मैं महा भारत की भूमी में विचरन करने जा रही हूँ
07:39मेरी शकुंतला रोती गिर गिराती नहीं है
07:45वह कुछ कहती है जिसे सुना जाना बहुत जरूरी है कि शकुंतला ने यही कहा था महा भारत में भी
07:57इतना याद नहीं
08:00सुनो इतना याद नहीं कि क्रोध दुर्वासा का था
08:08या राजा का पर विरह की आग से ज्यादा तीखी थी अपमान की ज्वाला
08:15क्रोध इतना याद नहीं कि क्रोध दुर्वासा का था या राजा का
08:22पर विरह की आग से ज्यादा तीखी थी अपमान की ज्वाला
08:28मेन का और विश्वा मित्र की पुत्री तापसी बनी खड़ी थी दरबार में
08:35यह तो पिता कण्व की शिक्षा थी कि अपमान सहते चुपना रहूं
08:46सिर उचा रखूं और सत्य से ना डिगूं तो सखी
08:50वह अंगूठी न थी जिससे मैं पहचानी गई
08:54वह अंगूठी न थी जिससे मैं पहचानी गई
08:59वह ग्यान और मान की शक्ती थी जिससे मैं जानी गई
09:04भरत की मा शकुंतला यह बात बहुत शान से कहती है
09:10कि वह ग्यान और मान की शक्ती थी जिससे मैं जानी गई
09:16अब एक कविता सावित्री पर है
09:20सावित्री को सुनकर के बिल्कुल वो मत कहिए
09:24सोचिएगा
09:25कि बस
09:27लिजली जी सी कोई
09:29स्त्री
09:31महाभारत की सावित्री बहुत तेजस्वनी है
09:34और मैं उस सावित्री
09:36को का सम्मान
09:38करती हूँ और उस पर रचना करती हूँ
09:40कविता का शीर्शक है
09:43सावित्र कहलाएंगे वे
09:45और यह यम
09:47और सावित्री का संबाद है
09:49यम ही बोलते हैं जादा यहां
09:52क्योंकि सावित्री अपनी बात कह चुकी है
09:54सुनो सावित्री
09:57सुनो सावित्री
10:00वह जो वीर्य को प्रदीप्त कर धारन करती है
10:05संतान को
10:06संतान उसी की होती है
10:08वह जो वीर्य को धारन कर
10:12प्रदीप्त कर धारण करती है संतान को, संतान उसी की होद्धी है
10:20अनिंधिते, प्रिथ्वी से यमलोक तक की ऐसी यात्रा अकल्पनिय रही मेरे लिए
10:27मेरी छाया भर से कापता प्राणी मृत्यु से पहले ही प्राण त्याग देता है
10:34कौन कह पाता है साथ कदम चल कर मित्र हुए हम हे वैवस्वत
10:43सावित्री ने चल करके जब यमने कहा कि ठीक है उनने कहा ना अब हम मित्र हैं
10:50मुसे ग्यान की बात करो साथ कदम चल कर मित्र हुए हम हे वैवस्वत
10:57रात के घोर अंधकार को चीरती सूर्य की पहली किरण सी हे कल्याणी कुल नंदिनी तारोगी तुम पती और पिता के कुलों को
11:14भविश्य तुम्हारे ही नाम से जाने का तुम्हारी संतानों को सावित्र कहलाएंगे वे
11:23सावित्र कहलाएंगे वे और अब इस आज तक को मैं बहुत धन्यवाद करती हूं और अपनी यहाँ पर यह एक अन्तिम कविता पढ़ती हूं एक तरह से यह मेरा वसियत नामा भी है
11:44मेरी इच्छा भी मैं रहूंगी यहीं इसी धर्ती पर मैं रहूंगी यहीं इसी धर्ती पर भले ही रहूं फूल राक की तरह
12:00इसी मिट्टी में हिल में या फिर अधजली अंतड़ी के किसी कोने में दबे बीच से उगाउं पौधा बनकर यहीं के हवा पानी धूप से पलते बढ़ते पेड़ हो जाऊं अनेक फूलो फलो बीजो वाला
12:22पर हाँ मैं रहूंगी यहीं इसी धर्ती पर किन्तु सुनो यह सच है कि मैं रहूंगी इसी धर्ती पर लेकिन कुछ शर्ते भी तो होती है ना किन्तु सुनो
12:36मैं लिंग नाम वर्ण धर्म से परे सत्य करुणा अहिंसा को बीज रूप में अपने भीतर समेटे
12:47खथेली की उश्मा और आख की नमी लिये एक विचार की तरह रहना चाहती हूं इस प्रिथवी के अंतिम मनुष्य तक एक विचार की तरह रहना चाहती हूं प्रिथवी के अंतिम मनुष्य के तक मैं रहूंगी यहीं इसी धर्ती पर
13:10बहुत आपाट
13:40पढ़ने लिखने को सबसी ज़्यादा कहा गया
13:43असल में मैं इसके बारे में आपको बात कहूँ
13:48कविता मैंने कैसे लिखी
13:49मैंने ठान लिया है
13:52कि मैं वो सब करूँगी
13:53जो मैंने मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती
13:56मसलन कविता करना
13:59मुझे लगता था कि मैं कविता लिख नी सकती और इसी लिए मैं ठान लिया
14:04अब आप लोग तहे करें कि मैंने जो सुनाया वो कविता थे
14:07तालियों के साथ बताईए
14:09तविता जी
14:12आपका सफर कैसा रहा उसके साथ सरापकी कविता पशुदाए
14:16जी
14:17मेरा सफर कैसा रहा मुश्किल
14:25कविता लिखना किसी भी तरह से रोमैंटिक काम नहीं है
14:36कविता जिंदगी के कई रहस्यों को उजागर करने
14:47के लिए आपके पास आती है और वैसी कविता हैं सखल होती हैं जो उन बातों को कह देती हैं
14:53कविता से आप कुछ में नहीं चिपा सकते क्योंकि वो एक दरपन है आप उससे चिपाएंगे तो वो आपको प्रतिबम में दिखा देगी कि क्या चुपाया जा रहा है तो इसलिए बहुत ही गंभीर कर्म है और मेरे लिए तो इसलिए भी संघर्ष बड़ा था क्योंकि मेरा �
15:23पर आके खड़ा होना पड़ा लेकिन खुशी के बात यह है कि अब जिस दुनिया में मैं एकेड़िकली पढ़ी बड़ी हुई फिलोसफी थियरी वगरा वगरा अब उसमें ही इसका रिकनिशन हो गया है विच इस वंडरफूल क्योंकि ऐसा अब माना जारा है जिस समय में ह
15:53क्योंकि काफी समय से आप सुनते आई होंगी कि अभी खाली साब बातचित करके गए बहुत अच्छी लगी उनकी बातचित कि जो नौवल है उपन्यास वो योरप की आत्मा की जैसे आवाज बनके उहरी जैसे जैसे वहां का पुझी वाद बढ़ता गया उसको नरेटिव �
16:23करने वाली सबसे मुफीद चीज है इसलिए मैं यह मानती हूँ कि यह जो कठिन संगाश इंटिलेक्चुल ही रहा वो अपनी जगह पे अपने मुकाम पे पहुचा हुआ है तो खुशी है इस बात की
16:37तो मैं अपने को इस्त्री कभी नहीं कहती हूँ मैं अपने को इस्त्री वादी कभी कहती हूँ तो इसमें फर्क है जरा है ना तो ऐसी थोड़ी बातें आपको सुनने को मिल सकती हैं मेरी कवताओं में ऐसी बाते हैं जिसमें एक प्रतिरोध है जिसमें पित्रिसत्ता के सा�
17:07अच्छा इसम नहीं दिखती है, हर पक पर दिखता है कि एक नई बात कहनी है, कुछ एक नई राह लेनी है, तो मेरी एक कविता बहुत प्रसिद्ध है, मैं किसकी औरत हूँ, वो नेट पे हर जगे है, आप लोग उसको सुन लीजेगा, आज मैं उसी तरह के एक कविता पढ़
17:37कुछ तरह से जाने जाते हैं, कुछ हाल तक तो उसकी बहु और उसकी माँ और उसकी पत्नी यही मानी जाती थी, उसका नाम तक लोग भूल जाते थे, आज जैसे आज मुझे अपनी नानी का ही नाम याद नहीं है, तो यह कविता है, मैं कथा कहूंगी,
18:00इस्त्रियों बार-बार मैं तुम्हारी कथा कहूंगी, उतरूंगी जीवन की अंधेरी खोव में दूर तक बढ़ूंगी, पहुचूंगी वहाँ जहां तक थोड़ी भी रोश्नी बाकी होगी,
18:19देखूंगी तुम्हारे प्राचीन चेहरे, जो अब तक दस्तवेजों की तरह सुरक्षित होंगे वहाँ, उनसे ही जान लोंगी तुम्हारा हाल,
18:29और यह भी समझ लोंगी की बहुत फर्क नहीं है, एक दुसरे के हालचाल में अब भी, अब भी दुख में वही इस्थिर ललाट है,
18:39मुंबत्यों से जलती हैं अब वैसे ही आखें, जिन्होंने देखे न जाने कितने शड़ियंत्र, जूट और अनाचार तमाम सब्यताओं में,
18:49जिम्मेदारियों और बेतहाशा सर्म से चुकी बही पीट, और शर्म में गड़ी वही गर्दन, अस्त व्यस्त वैसे ही केश, जिन्हें बाधने का स्वांग हर सदी में हमने किया,
19:03खोट पर मिर्त पड़े जीवन के वही पुराने गीत, जिन्हें एक समय हम सब ने जुम जुम कर गाया था, विश्व में जब बहुत कुछ हमारा था, इस जो तुब जहां कहीं भी हो, जिस सदी और जिस देश में, तुम्हें अपने पुर्वे जन्म से सामें कविता में प
19:33इस से अच्छी व्याख्या और क्या हो सकती है, कि हम बार-बार अपने को पालें, खो जाने के बावजूद, एक सदी से दूसरी सदी में, एक देश से दूसरे देश में, और अपने होने की इस लंबी त्रासत कथा को कहकर, बार-बार किसी सुन्दर मोर तक पहुचाएं।
20:03और रात थी, उसका एक रेप्रेजेंटिटिव कलेक्शन आया था, वानी से उससे पढ़ रही है। एक कविता है, रात, नीन, सपने और स्त्री, ये कविता मेरी कविता के जीवन में इसलिए महत्वपूर्ण है, कि ये सारे मेटफर्स, रात, नीन, स्त्री, सपने, ये सभी
20:33पाएंगे कि इसका और भी इसकी गहराई अपनी गहराई बनी है और एक प्रवाह, एक रफ्तार भी। रात, नीन, सपने, और स्त्री, नीन में ही छिपा है, इस त्री होने का सपर्श, जिसे महसूस करती है रात, और जो चाई रहती है इस पृत्वी पर वो इस इसी सपर्�
21:03नींद में हैं कहीं सुंदर जिससे जुड़ी है इस्त्री, पनपात्य मृत्यू, ग्रस्तिक हिंसक पुर्शाथ को, गिराती साहसी और बल्वान को, राज्य करती फिरेकागर भाव से सब पर
21:17रात में नींद है इस्त्री, दिन में सुंदर है, रात में नींद है इस्त्री, दिन में सुंदर है, नींद में जागती है रात, और इस रात में देखती है इस्त्री, आदी मनुहूतियों पर थिरकते, अपने होने के कामुक्स अपनू, एक कविता है, मनो कामनाओं जैसी इस
21:47हटी पीछे तो है आग
21:49खड़ी रही तो मूर्शा है गिराने के लिए
21:52ख्याल है इस कि जिस तरह टिक जिस जगह टिकें है पाओ
21:57वह भी खिसकने वाली है
21:58उसमें भी एक अजीब ताप है जो जलाता है आत्मा को
22:03जगह बदलने की बात हो तो जगह से जगह बदल लो
22:17है सितारों की रची रचाई दुनिया को देखने की
22:20चाहने की वह सीड़ी जिससे पहुंचों उन तक
22:23बसने उनी के बीच मैं पहचानती हूँ आखिरवा जुर्मुट
22:30जिसमें मैंने भी चुना है अपना एकोना
22:33जहां जाकर ठेहरती हैं प्रित्वी से लोटी उन्मुक्त का हवाएं
22:38रित्वें जहां जाकर सोचती हैं अपना होना
22:41ख्याल है कि पहुंचों वहां जहां पहले से ये कत्र हैं धेर सारी
22:46मनों कामनाओं जैसी सुन्दर और खुश इस्त्रियां
22:50इस्त्रिय अपना सुन्दर अपने समाज में नहीं देख पाती
23:05क्योंकि ये समाज उसको कुरुप बनाता है
23:09उसकी शक्तियों को खिंड करता है
23:12तो वह अपना सुन्दर
23:15आस्मान में देखती है
23:20गहरी काली रात सोई है उधिता जैसी
23:27खोले अपने कपड़े अपने बाल विस्तर में अकेली
23:31मन में है न उसके कोई उलज़न
23:34कोई विशाद या फिर चाह
23:36सो चुकी है रात पूरी एक नींद
23:39खोल चुकी है आँख
23:40बाहर सुन्दर लाल गोला सूरज का निकल चुका है
23:45बाहों को हवा में उपर उठा
23:47लेती हुई सुखा देख अंगणाई
23:49बदन को करती हुई सीधा
23:52अपने कपड़े पहन रही उधिता
23:54सामने निलाकाश बना है देखो कितना बड़ा दर्पन
23:59देखने के लिए उसे उसका अपना यस्वंदर है
24:03नहीं संग्रे से एक तुक कवता है पढ़ती हुई
24:33इधर मेरी कविताओं में प्रकृती मेरी ही तरह उपस्थित है
24:47और इसनी का वास्तव प्रेम प्रकृती से ही है
24:54जो वाकई उसको खुद से ही होना चाहिए
24:58जो वो नहीं कर पाती क्योंकि इसकी इजाज़त नहीं है
25:02तो ये कविता है मनोरम
25:08वहिस्त्री अपने मनोरम होने के सत्य को जानती थी
25:15धेर सारी ऐसी धेर सारी और भी बातों को वह जानती रही है
25:21उसने जहर्नों पहाडों और चिडियों के बारे में बहुत-बहुत सोचा
25:26घास के सिहरती देह के बारे में उसके पास विरल ग्यान है
25:30अनुह और सिध्धान्त भी
25:32वह बता सकती है कई तरह की सिहरनों के बारे में
25:36और यदि वह घास के बारे में हो
25:39तो उसका ग्यान और गहरा मालूम पड़ता है
25:42कई बार वो घास और हवा के संबन्द के बारे में अलग से बातें करती है
25:47और हवा तो खैर उसके भीतर ही रहती है
25:50उसने एक बार यह बात बताई थी
25:54हवा मनुश से अधिक दूसरे प्राणियों के लिए सहिशनु है
25:58और पेड़ पत्तों और घास जैसी मामूली सब्स चीजों के लिए बढ़ा सत्य
26:04यह अक्सर वक कहती पाई गई है
26:07इस तरी फिर भी अपने होने के सत्य को लेकर ज्यादा अश्चरे से भरी रहती है
26:14उसका अपना मनुरम होना उसे खुद पर बहुत रिजहाता है
26:19वह सोई नहीं एक रात जब उसने अपनी इस बात का विश्वास किया
26:24वह प्रफुलित रही किसी का इंतजार नहीं किया
26:28किसी की राय नहीं चाही वह जगी सुबह
26:32और आइने में अपना चेहरा देखा मुस्कुराई और कहा सुन्दर मनुरम
26:38कितना समय है
26:41उसी से मिलती चुलती एक कविता है संपदा
26:46अक्सर दुनिया भर के सबसे गरीब लोग औरते हैं
26:53अगर आप डेटा भी उठा के देखें
26:55तो दुनिया में मनुष्यों की इस प्रजाती में
26:59सबसे गरीब उप प्रजाती इस्त्रियों की है
27:01जबकि वो सबसे ज़्यादा संपन्न है
27:05वो जननी है
27:07वो सबकी रचना करती है वो स्रिष्टी है
27:10तो इस सबका भान अब हो रहा है
27:14और इस पर मैं लिख रही हूँ
27:16कविता है संपदा
27:19कैसी इस वाके पर न मरूँ
27:24कैसी इस वाके पर न मरूँ
27:27उस भाशाक पर निछावर न हो जाऊ
27:30जिसमें एक स्रिष्टी को देखती है
27:33एक विशाल पक्षी की तरह
27:35अपने पंखों को खोलते बंद करते
27:38जिसमें वो पाती है अपनी
27:41जिसमें वपाती है इसकी सबसे सुन्दर रचना
27:44उसके मन के अलावा अपने मन के अलावा वा देखती है अपनी देह की संपदा
27:50अपने उभरे स्थन अपनी सुन्दर बाहें लंबे काले केश वा देखती है
27:57जिससे जन्म लेती हैं कितनी इस रिष्टियां अपनी योनी बर देखती है
28:01विराजती योगनियों को कितने ही भैरों को उनमत निर्थ करते हुए आसपास
28:07कैसे न निचावर हूँ उस खुद पर इसका रक्त दोड़ता है मुझ मेरी नसे उम्रे नदीसी
28:15बेतवा अलक नंदा का प्रतिरूप जान पड़ती है
28:18मैं समुचे आकाश में मैं समुचे आकाश में खुद को फैला पाती हूँ
28:23सारी धर्ती को खुद में धड़कती हुई
28:26हवा को संभोग रत पाती हूँ जंगल में
28:30फूलों पर त्रक्ते भावरों के रहसे को समझ पाती हूँ
28:33मैं इस तरी हूँ या किस फ्रिष्टी क्यों ये एक भेद भीतर रखती हूँ
28:38देखती हूँ खुद को खुलती हुई खुद को बंद होती हुई देखती हूँ
28:42मैं कबसे सुन्दर थी
28:44इस पर सोचते हूँ
28:57मैंने अपनी बेटियों पर भी कई कवताय लिखी है
29:01और
29:04मुझे
29:05मज़ीद इतनी खुशी है
29:09कि मेरी दो बेटिया है
29:10और वो
29:14बड़ी होकर
29:16बुद्धी संपन
29:18और जीवन को समझने वाली
29:22समझदार लड़कियां बनी है
29:25तारों की बातें
29:27मेधा और दिव्या के लिए
29:30तुम्हें क्या दे सकती हूँ
29:34मेरे पास अपने होने का यथात भर है
29:37उसका बोध दे सकती हूँ
29:40एक माँ अपनी बेटियों को
29:42इस से अधिक और क्या दे सकती है
29:43क्या कहा तुम दोनों ने
29:46यही चाहिए तुम्हें
29:48इस्त्री होने का वैभाव
29:49फिर तु इस नफरत भरे संसार में जी लोगी तुम दीब तेक जीवन
29:55लिख लोगी अपनी कविता हैं
29:58अपनी चित्रकला साथ लोगी तुम
30:00तुम्हारे आसपास हमेशा रहा करेंगे पेड़
30:03एक महुए का जंगल तुम्हारे प्रेम में गिराएगा अपने फाल फूल
30:07उसकी महक से गुझार होता रहेगा तुम्हारा दिन और रात
30:12तुम्हारे जीवन में आएंगे वे लोग
30:14जिने प्यार करना आता होगा
30:16तुम्हे जानने सुनने को उच्शुक होंगे वो
30:19कि बेतु की हिंसा से बच जाओगी तुम
30:22रचोगी प्रेम और भाशा का नया संसार भी
30:25तुम्हे क्या दे सकती है तुम्हारी मा अपने आशू नहीं
30:35नहीं ही अपने हास गहने कपड़े लत्ते नहीं
30:39तुम्हे तारों से भर ये गराप दे सकती है
30:41और विस्यारी बातें जो उन से की गई
30:52चीके माम अब मैं आगे बढ़ूँ अनामिका जी को भी कुछ बात
30:56शुक्रिया
30:57लेकिन ऐसा क्यूं है आपके कविताओं में बहुत दर्द देखता है
31:03मुझे आपकी कविताओं में एक विद्रोह देखता है
31:05मुझे उसकी कोई खास वज़े है
31:08ये इस्त्रिवादी समझ ये चीजें हासिल होती है
31:12क्रोद भी जायज है
31:15हमारे इस्त्री के क्रोद से
31:18बहुत सारे अत्यचार रुक सकते है
31:20और दर्द इसलिए
31:22कि दर्द जीवन में है ही
31:26I mean
31:28बुद्ध ने इदका ही था
31:32इस्त्री का मतलब ही है दुख
31:35तो बहुत कुछ
31:39उसको सहना पड़ता है
31:41उसको
31:42बरदाश करना पड़ता है
31:44बिल्कुल ऐसा मकसद नहीं था
31:46कि आपकी आखे नम हो
31:48इसके रहे मैं जरूर माफि मागूंगी
31:50मैं मेरी आखे नम नहीं है
31:51मैं सोच रही हूँ
31:52कि अपने ओडियन्स को क्या कहो
31:54किसी भी स्त्री
31:58से जाके पूछो
31:59अगर रती भर भी
32:01चाहे वो किसी वर्क की हो
32:02और तलीत औरतों के बारे में
32:05तो मैं और भी कहूंगी
32:06रती भर भी दर्थ कम नहीं मिलेगा
32:10एक दूसरे सबके जीवन में
32:11हम बढ़ते ही हैं दुखों से
32:13हम दुख हमें पालता है
32:15इसलिए वो कविताओं में है
32:17अन्यमान अनामिका जी
32:22मैं दो छोटी कविताओं से शुरू करती हूँ
32:31पहली कविता का शीर्शक है
32:35स्त्री कवितों कवियों की जहालते
32:38कविता भी तो स्त्री ही है
32:41कम जगह घेरती है
32:44कम बोलती है
32:47जो बोलती है इशारों में
32:51आखें जुकाए
32:52बुधिमान को इशारा काफी मानती हुई
32:57बुधिमान लेकिन जल्दी में है
33:00उनको अच्छी लगती है उसकी
33:03मिश्टी मिश्टी सी मिस्टीक
33:06चलते चलते एक फूल धमा देते हैं
33:11पर उनकी सुनते नहीं वे कभी
33:13सुनते भी हैं तो समझते नहीं
33:18सब उसके प्रेमी हैं और दोस्त कोई नहीं
33:23दूर तलक कोई नहीं
33:27कोई नहीं
33:28बस एक खारा समंदर है
33:33एक नईया बह रही है अकेली
33:37अपने अनंत की तरफ पाल खोले हुई
33:42तुमने सिलाई कड़ाई की बात पूछी थी
33:47उस पर एक छोटा सा बंद सुनाती हूँ
33:50जो बाते मुझको चुप जाती हैं
33:53मैं उसकी सुई बना लेती हूँ
33:57क्या बात है
33:58चुभी हुई बातों की ही सुई से मैंने
34:02काड़े हैं फूल सभी धर्ती पर
34:06आकाश के ये सितारे
34:09धर्ती के सारे नजारे
34:12कड़वाए थे मुझसे ही उस खुदा ने
34:16मेरा पुराना महर्बान है वो खुदा
34:20बाकी तो सब बाल बुत्रू है
34:23उनकी में चिल पोन कान नहीं धर्ती
34:28रहती हूं मस्त और किसी से नहीं डर्ती
34:32मैं अक्सर मेरे माता पिता जो मेरे छात्रों के हैं ओम जी
34:41वो छात्राओं के की के माता पिता वो अक्सर कहते हैं कि मेरी बच्चियां शादी नहीं करना चाहतें
34:49शादी के नाम से बहुत डरती हैं तो एक बार मैंने रहने वाली अपनी एक चात्रा से बात की मैं वर्किंग बिम्स होस्टल गई और वहां मैंने उनकी तरफ से जो लिखा वो नवल पूरुशों को निवेदे थें
35:12अन्ब्याही औरतें माईरी मैं का से कहूं पीर अपने जिया की माईरी जब भी सुनती हूं मैं गीत आपका मीरा बाई
35:27सोच में पढ़ जाती हूं वो क्या था जो मा से भी आपको कहते नहीं बनता था
35:36हाला के संबोधन गीतों का अकसर वह होती थी
35:42वर्किंग विमेंस हॉस्टल के पिछवाडे का ढाबा
35:47दस बरस का छोटू प्यालिया धोता चमकाता
35:52जाने क्या सोच कर उस खटारा टेप पर बार-बार यही वाला गीत आपका बजाता है
36:01लक्षण तो हैं उसमें क्या वह भी मनमोहन पुरुष बनेगा
36:08किसी नई मीरा का मनचीता अडियल नहीं जरा मीठा
36:14वर्किंग विमेंस हॉस्टल की हम सब और तें धूर्टी ही रह गई कोई ऐसा
36:23जिसे देख मन में जगे प्रेम का हॉसला
36:28लोग मिले पर कैसे कैसे ज्यानी नहीं पंडिताओ
36:35वफादार नहीं दुम हिलाओ
36:38साहसी नहीं केवल जगडालू
36:43द्रण प्रतेग्य कहां सिर्फ जिद्धी
36:46प्रभावी नहीं सिर्फ हावी
36:50दोस्त नहीं मालिक
36:53सामाजिक नहीं सिर्फ एक आंत भीरू
36:58धार्मिक नहीं केवल कटर
37:02कट कटा कर हर दम ही पड़े रहते थे वे
37:06अपने उन प्रतिपक्षियों पर
37:09प्रतिपक्षी जो आखिर पक्षी ही थे
37:12उनसे ही थे उनके नुचे हुए पंक और चोच घायल
37:18ऐसों से क्या खाकर हम करते प्यार
37:22सो अपनी वर्माला अपनी ही चोटी में गूथी
37:27और कहा खुझ से एको हम बहुत स्याम
37:32वो देखो वो प्याले धोता वो नन्हा घंश्याम
37:37आत्मा की कोख भी एक होती है है ना
37:41तो धारण करते हैं इस नई स्रिष्टी की हम कलपना
37:48जहां ज्यान संग्यान हुआ करे साहस सदभावना
37:54आपने बदलती हुए स्त्रियों की बात की
38:00आप अकसर देखेंगी
38:02कहीं भी आत्रा प्रिस्त्रियां जाती हैं तो बार-बार घर फोन करती है
38:08इस प्रसंग पर एक कविता है एक औरत का पहला राज की ये प्रवास
38:13वह होटल के कमरे में दाखिल हुई
38:17अपने अकेले पंसे उसने बड़ी घर्म जोशी से हाथ मिलाया
38:23कमरे में अधियारा था
38:26घुप अधेरा था कुए का उसके भीतर भी
38:30सारी दीवारे टटोली अधेरे में लेकिन स्विच कहीं नहीं था
38:37पूरा खुला था दर्वाजा
38:40बरामदे की रोशनी से ही काम चल रहा था
38:44सामने से गुजरा जो बैरा
38:47तो आर्थ भाव से उसे देखा
38:50उसने उल्जल समझी बाहर खड़े ही खड़े दर्वाजा बंद कर दिया
38:57जैसे ही दर्वाजा बंद हुआ
39:01बल्बों में रोशनी के खिल गए सहस्र दल कमल
39:05भला बंद होने से रोशनी का क्या है रिष्टा उसने सोचा
39:12दल्लब पढ़ लेथी चटा ये चुभी घर की अंदर कहीं रीढ के भीतर
39:20तो क्या एक राजकुमारी ही होती है हर औरत
39:25साथ गलीचों के भीतर भी उसको चुभ जाता है कोई मटरदाना आदिम स्मृतियों का
39:33पढ़ने को बहुत कुछ धरा था पर उसने बाची टेलीफोन तालिका और जानना चाहा अंतर राश्ट्रिय दूरभाश का ठीक ठाक खरचा
39:46सबसे पहले फिर अपनी सब डॉलरे खरच कर उसने तीन किये अलग-अलग कॉल
39:54सबसे पहले अपने बच्चे से कहा हलो हलो बेटे पैकिंग के वक्त सूट केस में ही तुम उँख गए थे कैसे
40:04सबसे ज़्यादा यादा रही है तुम्हारी तुम हो मेरे सबसे प्यारे
40:16आफिस में खिन बैठ अंट शंट सोचते अपने प्रे से फिर चोके में चिन्तित बरतन खटकाती अपनी मा से अब उसकी हुई गिरफतारी पेशी हुई खुदा के सामने के इसी एक जुबा से उसने तीन तीन लोगों से कैसे ये कहा सबसे ज्यादा तुम हो प्यारे यह तो स
40:46सबसे ज्यादा लेकिन खुदा ने कलम रख दि और कहा औरत है उसने ये गलत नहीं कहा
40:56एक एकदम नई कविता स्रियां अब सिर्फ घरेलू प्रसंगों पर नहीं छोड़ती हैं से उचती हैं यह जो युद्ध हो रहे हैं दंगे हो रहे हैं
41:10आतंख हो रहे हैं, आतंख के इतनी वार्दाते हो रही हैं, उसके मन पे क्या होता है प्रभाव, ये मैंने महाभारत के कथा नहीं है, लेकिन महाभारत के एक प्रसंग पर कथा है, जो मेरे बाबा ने मुझे बच्पन में सुनाई थी,
41:31मैं उसके साक्षे से स्त्रियों की बात्पन की कहती हूँ, शान्ती पाठ होता है, जिसमें बार-बार कहते हैं, शान्ती, शान्ती, वहाँ से टेक ओफ है, इसका शीर्षक है शान्ती, शान्ती, शान्ती, शान्ती, तीन बार कहते हैं सब वेद पाठी,
41:57न्याए मूरती सारे तीन बार कहते हैं
42:01ओर्डर ओर्डर ओर्डर
42:04जैसे कि उनको पता हो ये पहले से
42:07एक बार में कोई बात नहीं मानने वाला
42:10किस चड़िया का नाम है शांती
42:15जैतून की डाली चोंच में दबाए
42:19उडने को तैयार वह फाखताया कबूतर
42:23यूएनों की उदास आखें जिसे देखती है कुछ हतप्रबसी
42:29मेरे लिए तो वह गर्बवती शार्दूल चिड़िया है
42:34जो के कुरुक्षेत्र के ऊपर उड़ती चली जा रही थी
42:40आर्तनाद भीशन उठा जो कहीं से
42:44वह कांपी और गर्ब गिर गया
42:47हवा में गुड़प गिर गये चार अंडे
42:54रक्त कीच में नीचे
42:57ठीक उसी शन किसी बान की चोट से तूट कर
43:01कीच पर एक गजघंट गिरा ऐसे
43:05अंडों का वह बन गया एक सुरक्षा कवच
43:08रक्त कीच की उश्माही उन अंडों को
43:12सेती गई तब तक जब तब की युद्ध चला युद्ध जब समाप्त हो गया
43:18फेल फैल गया मरघट का सननाटा कुरुक्षेत्र पर
43:22अपने कुन शिश्यों के साथ वहां से गुजरे
43:26रिशिकोई रक्त कीच के उपर गजघंट ओधा पड़ा था जो
43:33उससे आवाज आ रही थी ये कैसी तुन तुन तंटन जैसे अनहद की
43:40लेकिन ये अनहद नहीं था आगहत इसमें शामिल था
43:48छट-पटाहट शामिल थी नन्हे डैनों की जो आ गए थे अब अंडों के बाहर
43:58घोर आश्यर हुआ उनको गजघंट जो उठाया शारदूल शावक वे चार उड़े चारों दिशाओं में
44:08बाबा ने यह कथा सुनाई थी मुझको धुर बच्पन में जाको राखे साइया मार सके न कोई कहा था उन्होंने
44:18जब से सुनी तब से यही सोचती मैं बड़ी हो गई यह सृष्टी कैसी पहेली है
44:25एन युद भूमी में पल पुसकर इतने सयाने हो जाते हैं शारदूल चड़िया के बच्चे के पंक खोल उड़ जाएं चारों दिशाओं में अच्छीत किताबों के उन महान शब्दों की लए में
44:40जो कहती हैं सत्य में वजयते अंत में तो लेकिन सत्य ही जीतेगा समय लगेगा इतनी जल्दी बाहतों बाहर नहीं आते
44:59सत्य के शावक हिरन्य गर्भ से धीरज धरो खोने को और भी बहुत कुछ है जैसे अना
45:08दे आल्सो सर्व वो ओनली स्टैंड और वेट करना तुम घोर प्रतीक्षा करना सोचती हूं आज ये भी भीतर बाहर यानि दुनिया के सब मोर्चों पर आगसी लगी है जब
45:26शांती कहीं होगी तो होगी उस माचडिया के दिल में जिसके बच्चे बच गए हाला के कब तक ये वो नहीं जानती लेकिन एक फरियाद लिए होठों पर लगातार उड़ी जा रही है उल्टी हवाओं के खिलाफ से नो टू वार
45:48युद्ध में दंगों में आतंक में जो भी मरे जिस पक्ष से मरे होते हैं वे किसी मा के ही लाड़ ले
45:57हर विपक्षी एक पक्षी है संधी पत्र हैं गीत सारे बस सब के गीतों की भाशा अलग है जो सीखी समझी जा सकती है थोड़े उपक्रम से खग बनके खग जाने खगही की भाशा इस पर ही ठिकी हुई है हर देश हर कौम की आश्या
46:21मैं अभी आपके नौ मिनिट और शेश है
46:28मैं एक कविता पुरानी सुनाती हूँ
46:31लेकिन मैं आप आखे बढ़ें क्योंकि मैं इसमें बीच में खलल नहीं डालना चाहरी थी लेकिन मेरे मन में एक प्रश्ण है तो मैं चाहती हूँ क्या आप से मैं
46:39आपने जो पहली कविता पढ़ी उसमें एक शिकायत नजर आई और मुझे ऐसा लगा कि वो शिकायत हर पुरुष कौम से है
46:46नए नए शिकायत नहीं है ये आईना दिखाने की कोशिश है जैसे बच्चमन में क्या हो गया है ना शिक्षा दीप्स्त्री जो ध्रुवस्वामिनी की स्थिती में आ गई है और समाज रामगुप्तों का है चंद्रगुप्त अभी बन रहे हैं नए पुरुष नए धंग म
47:16पंक्ति है जिसमें मतलब लड़की तो 18-16 बरस की है लेकिन उसकी शादी करा दी गई है दो बरस के लड़के से तो मुझे ऐसा लगता है कि आज कर ज्यादा ट्रस्त्रियां अपने पती को घर का सबसे छोटा और जिद्धी बच्चा मान कर पाल रही हैं और विद्यापती �
47:46हम तरुनी पियालेली गोदक चलेली बजार तो उसी भाव में नया पुरुष ढ़ला जा रहा है थोड़ा सा आइना दिखा के जहां नाक से अगर हम जब किसी को पालते हैं तो जो भी मूँ पे गंदगी होती है नाक से निकलती है कहीं से निकलती है उसको हम अपने आचल से
48:16के परिस्थिति गत्विछलनों का स्वभाव है ऐसा नहीं है के पूरुष सहिशनुता ममता लज्जा आदि गुणों से वंचित है बस यह जो बीज बुद्धत्यों के उनके भीतर दब गए हैं उनको नर्चर करने की जरूरत है और स्त्रीवाद इकलौता आंदोलन है जो स
48:46गालिब कहते थे पुरहुशिक्वे से ऐसे जैसे राग से बाजा एक जरा छेड़िये फिर देखिये क्या होता है ये क्रियेटिव डिस्टॉर्शन है किसी को आईना दिखाना या किसी को किसंसकार मार्जन के लिए उससे कहना कि ये तुम क्या कर रहे हो ये नहीं बुद्�
49:16नहीं जानते कि ये क्या कह रहे हैं तो सारे विमर्श उठे और उन्होंने कहा अगर ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं इन्हें जानना चाहिए कि ये क्या कर रहे हैं मनुष्य को मनुष्य की गरिमा से गिरा कर और सिर्फ स्नेह का पात्र बना देना पुरुशों को या
49:46masculine पूरुष नहीं और हमें भी hyper masculine Barbie doll नहीं बनना तो hyper
49:55irritability के बारे में एक चेटाबनी है और तो स्वयम समर्थ हैं नहीं आयोगे साथ तो भी ठीक है अगर थोड़ा सा संभर जाओगे तो और अच्छा
50:07क्या बात है एक कविता हाँ डिमांड है जी जी जी तर कहां से आएं आप उनके साथ ही है
50:29अच्छा आप student थे अच्छा अच्छा
50:35मौसियां वे बारिश में धूब की तरह आती है थोड़े समय के लिए और अचानक हाथ के बुने स्वेटर इंद्रधनुश तिल के लड़ू और सधोर की साड़ी लेकर वे आती हैं
51:05जूला जूलाने पहली मितली की खबर पाकर और गर्ब सहला कर लेती हैं अंतरिम रपट ग्रे चक्र बिस्तर और खुद्रा उदासियों के
51:17जारती हैं जाले समभालती हैं बकसे मेनत से सुलजाती हैं भीतर तक उलजे बाल कर देती हैं चोटी पाठी और डाती भी जाती हैं के
51:31पगली तू किस धुन में रहती है कि बालों की गाठें भी तुझ से ठीक से निकलती नहीं।
51:39बाल के पहाने वे गाठें सुलजाती हैं जीवन की, करती है परिहास, सुनाती है किस से, और फिर हस्ती हसाती दबी सधी आवाज में बताती जाती हैं।
51:55चटनी अचार मूं बढ़ियां और बेस्वाद संबंध, चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्के, नुस्के उन सारी तकलीफों के जिन पर ध्यान भी नहीं जाता ओरों का।
52:14आखों के नीचे धीरे धीरे जिसके पसर जाते हैं साएं, और गर्ब से रिस्ते हैं जो महीनों चुपचाप, खून के आसू से, चालीस के आसपास के उस अकेले पन के,
52:31काले कत्थई चकत्तों का, मौसियों के वैद्यक में एक ही इलाज है, हसी और काली पूजा और पूरे मुहले की अम्मा गिरी,
52:46बीस्मी शती की कूड़ा गाड़ी, लेती गई खेट से कोड़ कर अपने जीवन की कुछ जरूरी चीजें, जैसे मौसीपन, भूआपन, चाचीपन थी, अम्मा गिरी मगन सारे भूवन की.
53:05मुझे पताया जा रहा है, आपकी बुक भी है, आपकी किताब, उसके विमोचन, उसके बारे में भी अगर आप कुछ कहना चाहें, वह कौण सी किताब है, कौण सी किताब, चलिए, तालिया हो जाएं एक बार हमारे खास महमानों के लिए,
53:35और नारी शक्ति की बात करते हैं, स्त्रिवात की बात करते हैं, तो मुझे लगता है कि हर नारी के अंदर वो जो जौला है, वो जलती रहनी चाहिए, तालिया बचती रहनी चाहिए, मैं उमीद करूंगी चलिए, पुरुष नहीं बजा रहे ठीक है, महिलाओं की तो तालिय
54:05पर उपलद भी है तो आप लोग चाहें तो इसके बाद आईएगा वहाँ मैम को भी आप सब को इमें आमद्रत करता हूं
54:10तो आप तीनों का बहुत दो शुक्रें अगर किसी के मन में क्योंकि मेरे पास समय है अभी लगभाग एक मिनट का है मैम
54:33कि अछिए को एसा लगथा मैंने किसी के साथ अन्याइ रहों किसी को काम वक्त दिया हो छूंस के लिए
54:53शुरश्टी की पहली सुबह थीवाः कहा गया मुझसे तो उजिवारा है धरती का और छिए लिया
55:01गया मेरा सूरज कहा गया मुझसे तो बुल-बुल है इस बाग का और जपट लिया गया मेरा आकाश कहा गया मुझसे तु पानी है शुरुष्टी की आँखों का और मुझे ब्याहा गया रेज से सुखा दिया
55:23गया मेरा सागर
55:24कहा गया मुझसे
55:27दुबिम्ब है
55:28सबसे सुन्दर
55:31और तोड़ दिया गया
55:33मेरा
55:34दरपन
55:35अब हमें इसी दरपन को जोड़े
55:39रखना है
55:39अच्छा
55:45एक एक चीज़ और
55:46बहुत दिल्चस पैसन
55:48बिल्कुल सर मैं अपनी एक टिपड़ी करना चाहूंगी
55:51इसी को कहते हैं पार्खी नजर
55:52मैंने जिसे शिकायत कहा
55:54उन्हें इन्होंने आईना दिखाना कह दिया
55:56और इनको एक किताब दिया
55:57इन्होंने उसको जट से जो पकड़ की एक दम
56:00इन्होंने गाह दिया
56:01यह बहुत ही खुबसूरत है
56:02मैं प्लीज
56:03पहली कविता जो है वही सुना देती है
56:09इसका शीशक है स्त्रिया
56:11पढ़ा गया हमको
56:14जैसे पढ़ा जाता है कागज
56:17बच्चों की फटी कौपियों का
56:20चना जोर गरम के लिफाफे बनाने के पहले
56:24देखा गया हमको
56:31देखी जाती है कलाई घड़ी
56:34अलस सुबह अलार्म बजने के बाद
56:38सुना गया हमको
56:40योही उड़ते मन से
56:43जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
56:46सस्ते कैसेटों पर
56:49थसा थस थुसी हुई बस में
56:52भोगा गया हमको
56:55बहुत दूर के रिष्टेदारों के
56:58दुख की तरह
57:01एक दिन हमने कहा
57:03हम भी इंसान हैं
57:06हमें काइदे से पढ़ो
57:08एक एक अक्षर
57:10जैसे पढ़ा होगा
57:12दिये के बाद
57:14नौकरी का पहला विज्यापन
57:17क्या बात
57:18देखो तो ऐसे जैसे के ठिठूरती हुई देखी जाती है बहुत दूर जलती हुई आग
57:27सुनो हमें अनहद की तरह
57:30और समझो जैसे
57:33समझी जाती है
57:35नई नई सीखी हुई भाशा
57:38इतना सुनना था के अधर में लटकती हुई
57:43एक अधर श्य टहनी से
57:45टिड्डियां उड़ी और रंगी नफवाहें
57:49चीखती हुई चीँ चीँ दुश्चरित्र महिलाएं दुश्चरित्र महिलाएं
57:55किनी सरपरस्तों के दम पर फूली फैली
57:59अगर धत जंगली लटाएं
58:01खाती पीती सुकसे उबी और बेकार बेचैन
58:06आवारा महिलाओं का ही शगल हैं
58:09ये कहानिया और कविताएं
58:12फिर ये इन्होंने थोड़े ही लिखी हैं
58:15कंख्यां, इशारे, फिर कंख्यी
58:18बाकी कहानी बस कंख्यी है
58:22हे परमपताओ, परमपुर्शो, बक्षो, बक्षो
58:27अब हमें बक्षो
58:28तालियां हो जाए हमारे खास मैमान के लिए बहुत बत शुक्रिया
58:32आप तीनों का हमारे इस मंच पर हमाई साहित के कारप्रम में शरकत करने के लिए बहुत बश्यक्रिया
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