स्पेशल बच्चों के जीवन में प्रकाश भर रहा है, झारखंड की राजधानी रांची का प्रकाश कुंज. यहां आने वाले हर बच्चे की कहानी कुछ अलग है. ढाई दशक से इन स्पेशल बच्चों का यहां भविष्य संवर रहा है.इस सस्थान को चलाने वाली शीला लिंडा कहती हैं ये बच्चे समाज से अलग नहीं हैं, बस इनको थोड़ी सहानुभूति की जरुरत है.यहां आने वाले बच्चे जितने संवेदनशील है. उतनी ही संवेदनशील इस संस्थान की कहानी है. इसकी शुरुआत एक बच्चे प्रकाश से हुई. जो देख नहीं सकता था. जीवन से निराश हो चुका था.लेकिन शीला लिंडा ने पढ़ने से लेकर अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद की.मोनिका बारला, कभी समाज से कटकर जी रही थीं, आज आत्मनिर्भर हैं.गोविंद कुमार, जो मूक बधिर हैं,आज एक सिलाई सेंटर में काम करते हैं.यहां आने वाले बच्चे गरीब परिवार के हैं.परिजनों का कहना है कि हमारे जैसे परिवारों के लिए प्रकाश कुंज किसी वरदान से कम नहीं हैं.प्रकाश कुंज को चलाने वाली शीला लिंडा का सफर केवल शिक्षिका तक सिमित नहीं रहा है. वो स्पेशल ओलंपिक में कोच के रूप में भी काम कर चुकीं हैं.साइन लैग्वेंज अनुवादक भी रहीं हैं....श्रम मंत्रालय में सलाहकार बोर्ड की सदस्य के रुप में दिव्यांगों के लिए बनने वाले नीतियों पर सुझाव भी दे चुकी हैं.
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