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00:00कुरुक शेत्र का मैदान शांत था। सुभा का हलका सूरज आस्मान में उग रहा था। अर्जुन रत पर खड़े थे लेकिन उनके मन में एक गहरी उल्जन थी। उन्होंने सिर जुका कर कृष्ण से पूछा, अर्जुन, मधुसूदन, आप कहते हैं कि कर्म भी है, अकर्म �
00:30बोले, कृष्ण, पार्थ, बिना कुछ किये रहना अकर्म नहीं है, अकर्म का अर्थ है, ऐसा कर्म जिसको करके भी मनुष्य बांधता नहीं है, क्यूंकि वो कर्म एहंकार या स्वार्थ से नहीं किया जाता। अर्जुन ने आश्चरे से पूछा, अर्जुन, कर्म करके भ
01:00लाभानी, जीत हार की चिंता छोड़कर तब वही कर्म, अकर्म बन जाता है। अकर्म का मतलब है कर्म के भीतर अनासक्त की बुद्धी।
01:10अर्जुन गहरी सोच में पड़ गये। कृष्ण ने आगे कहा। कृष्ण जैसे सूर्य रोज प्रकाश देता है पर इससे उसे कोई आशा नहीं। समुद्र नदियों का जल लेता है पर कभी मांगता नहीं। उसी प्रकार जब मनुश्य अपने कर्म को पूर्ण निष्ठा स
01:40खिल उठा। अर्जुन अब समझा केशव अकर्म कोई कुछ ना करना नहीं बलकि कर्तव्य करते हुए स्वैम को करता ना मानना है। कृष्ण ने मुस्कुरा कर कहा। कृष्ण सही समझे पार्थ इसी ज्यान से कर्म भी पवित्र बन जाता है और मनुश्य भी।
01:59हलकी हवा चली रत के घोडे फड़क उठे। अर्जुन ने धनुश उठाया अब उनकी उल्जन मिट चुकी थी कर्म का मार्ग स्पष्ट था। यही है गीता का अकर्म तत्व।
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