शब्दयोग सत्संग १२ अप्रैल २०१७ अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा
अष्टावक्र गीता, अध्याय १८ से क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता। इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१२॥ यह कर लिया और वह कार्य शेष है। इन द्वंदों से जो मुक्त है, उसके लिए द्वन्द कहाँ, काम कहाँ, अर्थ कहाँ और विवेक भी कहाँ है?
कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रंजना। यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१३॥ जीवनमुक्त ज्ञानी के लिए न तो कुछ कर्तव्य है, और न ही उसके ह्रदय में अनुराग है। जिस प्रकार जीवन बीते, यही उसकी स्थति है।
प्रसंग: संतुष्टि कैसे मिले? क्या पाकर संतुष्ट हुआ जा सकता है? जीवन में हम कभी भी संतुष्ट क्यों नहीं हो पाते? जीवन में संतुष्टि पाने के उपाय क्या हैं? सुख कहाँ है?