दोहा: सिर राखे सिर जात है, सिर कटाये सिर होये। जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होये।। (संत कबीर)
प्रसंग: "सिर राखे सिर जात है, सिर कटाये सिर होये।" संत कबीर ऐसा क्यों कह रहे है? सिर राखे सिर जात है यहाँ सिर का क्या अर्थ है? सत्य क्या है? आत्मा क्या है? क्या सत्य और संसार अलग-अलग हैं?