तुमने विश्वकप उठाया है, और उसके साथ सदियों से झुके हुए करोड़ों सिरों को भी। ऐसी जीतें मैदान की सीमाओं से आगे जाती हैं, वे दिखाती हैं कि जब तुम आदिम भूमिकाएँ लाँघती हो, तो क्या संभव हो जाता है।
युगों से तुम्हें कविता में पूजा गया, जीवन में दबाया गया। मंचों पर गाया गया, पर मैदान से वंचित रखा गया। आज समय ने फिर देखा कि क्या होता है जब तुम न कठपुतली बनती हो न देवी, बल्कि जूझती हो खिलाड़ी, योद्धा, विजेता बनकर।
देखे दुनिया कि दैवीयता किसी ठहरे हुए चलन का नहीं, बल्कि मानवीय क्षमता के पूर्ण प्रस्फुटन का नाम है। कि पवित्रता रीतियों के पुरातन जाल में नहीं बसती, पवित्र वो है जो जंग-खाई जंज़ीरों को बेधड़क उखाड़ फेंके।
सच्ची जीत प्रतिद्वंद्वी पर नहीं, अपने ही बेड़ियों पर होती है: व्यक्तिगत, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक। जब स्त्री स्वतंत्र होकर खेलती है, तब राष्ट्र स्वतंत्र होकर साँस लेता है। जब स्त्री निर्भय होकर नाचती है, तब पृथ्वी पर जीवन प्रश्रय पाता है।
यह जीत किसी उत्सव पर समाप्त न हो। कुछ प्रश्न गूँजते रहें: कितनी भ्रूण-बालिकाएँ जीवन के मैदान पर उतर भी नहीं पातीं? कितनों को अब भी कहा जाता है कि उनका स्थान निचले पायदान पर है? और कितनी जो अब भी शिक्षा, स्वाधीनता, स्वर वंचित सबसे - मूक अशक्त!
मैदान पर बना हर रन, उस रण की याद दिलाए जो स्त्री आज भी हार रही है। मैदान पर लगा हर चौका, उस चौके की याद दिलाए जो रसोई से ज़्यादा जेल है। गेंद तो सीमा रेखा पार कर गई, पर याद रखना कोई अभी भी सीमा में ही कैद है।
इतिहास इस दिन को केवल कप के लिए ही याद न रखे, क्योंकि सच्ची विजय तब है जब औरों के विजयी होने का मार्ग भी प्रशस्त हो। यह दिन सहस्रों नई विजयों की भोर बने — नए कपों की, नए मैदानों की, नई दिशाओं की।
00:00छोटा मत अनुभव करना कभी, जब भी ऐसा भाव आए, हमसे क्या हो पाएगा, पर हम क्या कर सकते हैं, एकदम उसको पत्थर मार के भगा दो, पढ़ेंगे तो उचे से उचा पढ़ेंगे, देखेंगे तो उचे से उचा देखेंगे, घटिया साहित्य नहीं पढ़ेंगे, �
00:30याचक नहीं बनना है, भिखारी नहीं है हम, सहारा दे देंगे, मांगेंगे नहीं, और खूब सहारा देंगे, जिसको सहारा दे रहे हो, वही पलट करके मारे हमें, तो भी उसको देंगे सहारा, देखें तो दिल कितना बड़ा है, ऐसे ऐसे तन के खड़े रहना है, ये थो
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