(गीता-38) गीता की सबसे प्रसिद्ध बात, जो हम समझ ही नहीं पाए || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2024)

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वीडियो जानकारी: 24.01.24, गीता समागम, ग्रेटर नॉएडा

प्रसंग:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

भारत (हे अर्जुन) यदा यदा हि (जिस जिस समय) धर्मस्य (धर्म की) ग्लानिः (ग्लानि या न्यूनता) अधर्मस्य (अधर्म का) अभ्युत्थानम् (अभ्युदय) भवति (होता है) तदा (तब) अहं (मैं) आत्मानं (अपने को) सृजामि (प्रकट करता हूँ) ॥७॥

हे भारत! हे भरतवंशी, जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का अभ्युदय होता है, अधर्म सिर चढ़कर बोलता है तब-तब मैं उस धारा से अपनेआप को प्रकट करता हूँ।

जा मुझसे दूर जितना जाएगा
टकराएगा चिल्लाएगा गिर जाएगा
मत बचा मिटा दे प्यारे अंधेरे को
तू लाख बचा वो बच नहीं पाएगा
~ आचार्य जी द्वारा दिया गया काव्यात्मक अर्थ

~ जब अधर्म होता है, तब सत्य अपने विस्फोटक रूप में प्रकट होता है।
~ जो जग गया, वही कृष्ण है।
~ धर्म की हानि होना काफी नहीं, अहम को धर्म की हानि का पता चलना ज़रूरी है, तभी क्रांति होगी।
~ आज दुर्दशा से गहरा है नशा।
~ जब अधर्म पूरी तरह प्रकट हो जाता है, तो विरोध अपने आप उठता है और वास्तविक क्रांति होती है। पर जब अधर्म छिपा रहता है तो कोई क्रांति नहीं होने पाती।
~ धर्म की हानि आज पहले से ज़्यादा है, पर आज क्यों नहीं क्रांतिकारी पैदा हो रहे हैं?
~ आज कृष्ण उसमें आयेंगे जो सामने जो है, उसे वैसे ही दिख रहा है, जो संवेदनशील हैं और अधर्म को साफ़-साफ़ देख पा रहा है।
~ कृष्ण आपकी छाती से जनमते हैं, आसमान से नहीं।

संगीत: मिलिंद दाते
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