वे फिर लौटेंगे- मुकेश कुमार I Migrant Workers I Lockdown I COVID 19 I

  • 3 years ago
सिर पर गठरियाँ रखे
कंधों पर गृहस्थी उठाए
गोद में बच्चे लिए, सिर झुकाए
बसों की छतों पर लदकर
ट्रेनों में ठसाठस भरकर
थके, हारे,
बेबस, बेचारे
वे फिर लौटेंगे

चले गए थे वे खामोशी से
कोई शिकायत नहीं की, कोई विरोध नहीं किया
जुलूस नहीं निकाला, धरना नहीं दिया
किसी को मजबूरियाँ नहीं बताईँ
गुहार भी नहीं लगाई
पता था सुनी जाती है केवल उनकी
पुलिस, अदालतें, सरकार हैं जिनकी
बाशिंदे होकर भी बेगाने थे शहर के लिए
अभिशप्त थे बार-बार उजड़ने जाने के लिए
उन्हें तो यूँ जाने के लिए भी नहीं बख्शा जाएगा
लाठियों, गोलियों से नवाज़ा जाएगा
इसलिए चले गए लाचारी का ढिंढोरा पीटे बगैर
पीछे छूटते शहर की मनाते हुए ख़ैर

वे फिर लौटेंगे
उसी एहसान फरामोश शहर में जीने-मरने
उसी नरक को ग़ुलज़ार करने
जहाँ से बेआबरू होकर निकल गए थे
तमाम रिश्ते पल भर में पिघल गए थे
मजबूर हैं बार-बार वहीं ठिकाना बनाने
उन्हीं अनजाने, अनचाहे लोगों में बस जाने
जो किसी भी दिन अपनी सलामती के लिए
फिर उन्हें मुसीबतों में धकेल देंगे
शहर से बाहर के रास्तों पर ठेल देंगे

वे आते ही जुट जाएँगे काम पर चुपचाप
हमारी हमदर्दियों पर हाँ हूँ करते
पी जाएंगे आँसू, दबा जाएंगे संताप
ज़ाहिर नहीं करेंगे अविश्वास
नहीं करेंगे ज़रा भी कड़वी बात
वे सुनाएंगे अपनी आप बीती
कैसे गुज़रा ये संकट का समय
कैसे ज़िंदगी की जंग जीती
मगर नहीं चाहेंगे आपकी दया
आपको क्या दिखाएं पाँव के छाले, दिल के घाव
आपके लिए तो ये भी है एक किस्म का मन बहलाव

वे फिर लौटेंगे
उनके आते ही गूँजने लगेंगे
घर दुकान दफ्तर, उद्योग-धंधे
कितने ही बीमार होने लगेंगे भले चंगे
उनके हाथ-पाँव की हरकतों से
मुर्दा सड़कें जाग जाएंगी
ज़ख़्मी जिंदगी दर्द के साथ मुस्कराएगी
लोग राहत की साँस लेंगे
फिर से भविष्य के सपने बुनेंगे
शहर का दिल धड़कने लगेगा
मगर स्वार्थों के कोलाहल में कोई नहीं सुनेगा
उनके टूटे दिलों में अनवरत् बजता
किसी विषधर सा डसता
एक अंतहीन विलंबित शोक-गीत।

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