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  • 5 years ago
शूजीत सरकार की फिल्म 'गुलाबो सिताबो' का टाइटल उत्तर प्रदेश के लोकप्रिय कठपुलती शो से लिया गया है क्योंकि कहानी इस बड़े राज्य की राजधानी लखनऊ में सेट है। यह लखनऊ पुराना किस्म का है जहां पर फातिमा महल नामक एक जर्जर हवेली है।

इस खंडहर होती हवेली की मालकिन हैं बेगम (फार्रूख ज़फर) जिनकी उम्र 95 बरस हो चली है। 'फातिमा महल' की देखभाल का जिम्मा बेगम के शौहर मिर्जा (अमिताभ बच्चन) पर है जो बेगम से 17 वर्ष छोटा है।

इस हवेली में कुछ किराएदार भी रहते हैं जो बरसों से यहां जमे हुए हैं। 30 रुपये, 70 रुपये जैसा मासिक किराया चुकाने में भी आनाकानी करते हैं। किराएदारों में आटा चक्की चलाने वाला बांके (आयुष्मान खुराना) तेजतर्रार है और आए दिन मिर्जा से उलझता रहता है।

एक दिन बांके की एक लात से पाखाना की दीवार गिर जाती है और मिर्जा मामला पुलिस तक ले जाता है। थाने में बैठा पुरातत्व विभाग का अधिकारी ज्ञानेश शुक्ला (विजय राज) मामला ताड़ लेता है और हवेली को 'हैरिटेज' घोषित करने का जाल बुनने लगता है।

क्रिस्टोफर क्लार्क (ब्रजेन्द्र काला) वकील है और वह मिर्जा को वो तरकीबें बताता है जिससे हवेली 'हैरिटेज' न बन पाए। ज्ञानेश और क्रिस्टोफर के भी अपने-अपने स्वार्थ हैं जिसे बांके और मिर्जा जैसे कम पढ़े-लिखे और गरीब लोग समझ नहीं पाते और झांसे में आ जाते हैं।

दो लोगों के विवाद के बीच पुलिस, सरकार, बिल्डर, नेता आ जाते हैं और हवेली को हड़पने की तरकीबों का इस्तेमाल करते हैं।

जूही चतुर्वेदी द्वारा लिखी इस फिल्म में किरदार बड़े जोरदार लिखे गए हैं। किरदारों की गहराई और उनके इरादे तुरंत दर्शक समझ जाते हैं, लेकिन इन किरदारों के लिए जो कहानी लिखी गई है वो उतनी दमदार नहीं है।

शुरुआत में फिल्म अच्‍छी लगती है जब हम जर्जर हवेली, कब्र में पैर लटकाए मिर्जा और लंपट बांके के किरदारों से परिचित होते हैं।

मिर्जा की बल्ब से लेकर तो अचार चुराने की हरकत अच्‍छी लगती है जिन्हें वह कबाड़ी की दुकान में बेच कर पैसे जुटाता है।

बांके के उस दर्द से प्यार होता कि उसे लगता है कि उसकी छोटी बहन बड़ी ही नहीं हो रही है और बड़ी बहन कुछ ज्यादा ही तेजी से बड़ी हो रही है।

जर्जर हवेली में भूली-बिसरी चीजें, कबाड़, गूटर गूं करते कबूतर, प्लास्टर उखड़ी दीवारों को जब कैमरा दिखाता है तो महसूस होता है कि कभी यह बुलंद इमारत थी।

लेकिन जब हम हवेली के कोनों-कोनों को जान जाते हैं, बांके और मिर्जा की रग-रग से वाकिफ हो जाते हैं तो बात कहानी और स्क्रीनप्ले पर आ टिकती है और यही पर फिल्म मात खाती है।

फिल्म इतनी धीमी हो जाती है धैर्य जवाब देने लगता है। शुक्ला और क्रिस्टोफर के किरदार जब सामने आते हैं तो फिल्म का स्तर ऊंचा उठता है, लेकिन जल्दी ही ग्राफ फिर नीचे आ जाता है।

बांके और मिर्जा की शुरुआती झड़पों से दर्शक उम्मीद बांधते हैं कि यह नोकझोक और भी मजेदार रूप लेगी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाता।

स्क्रीनप्ले की दूसरी समस्या ये है कि आप किसी किरदार से जुड़ नहीं पाते। मिर्जा का लालच और बांके का टुच्चापन दर्शकों को इनसे दूर रखता है।

मिर्जा और बांके दोनों हवेली को बचाने में लगे रहते हैं, लेकिन दोनों को यह लगता है कि वे एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं, इसको लेकर अच्छा हास्य रचा जा सकता था।

फिल्म अंतिम बीस मिनट में गति पकड़ती है जब घटनाक्रम तेजी से घटता है और एक जोरदार ट्विस्ट के साथ फिल्म खत्म होती है।

शूजीत सरकार कहानी को अपने तरीके से कहने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन 'गुलाबो सिताबो' में उनका यह अंदाज कमजोर रहा। बेशक उन्होंने किरदार और लोकेशन बेहतरीन गढ़े हैं, लेकिन वे इमोशन और हास्य रचने में सफल नहीं हो पाए।

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