जिसका चित्त, यह कर्तव्य है, यह अकर्तव्य है, इत्यादि दुखो की तीव्र ज्वाला से झुलस रहा है, उसे भला कर्म त्याग रूप शान्ति की पियूष धारा का सेवन किये बिना, सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है?
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भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थतः । नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम् ॥४॥
यह संसार केवल भावना है, परमार्थतः कुछ नहीं है। भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता।
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न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदं । निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम् ॥५॥
आत्मा का स्वरुप न दूर है, न निकट। वह तो प्राप्त ही है। तुम स्वयं ही हो। उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न है, न प्रकार है, और न मल। अज्ञान मात्र की निवृति होते ही, तथा स्वरुप का बोध होते ही, दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्वज्ञ पुरुष शोकरहित होकर शोभायमान होते हैं।