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  • 6 years ago
वीडियो जानकारी:

शब्दयोग सत्संग
६ अप्रैल, २०१७
अद्वैत बोधस्थल, नॉएडा

॥ अष्टावक्र उवाच ॥
यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद् भवति भ्रमः ।
तस्मै सुखैकरूपाय नमः शान्ताय तेजसे ॥१॥

जिसको बोध का उदय होने पर, जागने पर, स्वप्न के समान, भ्रम की निवृत्ति हो जाती है, उस एकमात्र सुख स्वरुप शांत प्रकाश को नमस्कार!

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अर्जयित्वाखिलान् अर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान् ।
न हि सर्वपरित्याजमन्तरेण सुखी भवेत् ॥२॥

कोई जगत के समस्त पदार्थों का उपार्जन कर के अधिक से अधिक भोग प्राप्त कर सकता है, परन्तु सबका परित्याग किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता।
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कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः ।
कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम् ॥३॥

जिसका चित्त, यह कर्तव्य है, यह अकर्तव्य है, इत्यादि दुखो की तीव्र ज्वाला से झुलस रहा है, उसे भला कर्म त्याग रूप शान्ति की पियूष धारा का सेवन किये बिना, सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है?

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भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थतः ।
नास्त्यभावः स्वभावनां भावाभावविभाविनाम् ॥४॥

यह संसार केवल भावना है, परमार्थतः कुछ नहीं है। भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता।

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न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदं ।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम् ॥५॥

आत्मा का स्वरुप न दूर है, न निकट। वह तो प्राप्त ही है। तुम स्वयं ही हो। उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न है, न प्रकार है, और न मल। अज्ञान मात्र की निवृति होते ही, तथा स्वरुप का बोध होते ही, दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्वज्ञ पुरुष शोकरहित होकर शोभायमान होते हैं।

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समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तः सनातनः ।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत् ॥७॥

सबकुछ कल्पना मात्र है, और आत्मा नित्य मुक्त है, धीर पुरुष इस बात को जानकर, फिर बालक के समान क्या अभ्यास करे!

प्रसंग:
कौन हैं अष्टावक्र?
अष्टावक्र किस काल थे?
अष्टावक्र को कैसे समझें?

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