1. छठ या सूर्य षष्ठी व्रत में किन देवी-देवताओं की पूजा की जाती है? छठ व्रत में सूर्यदेव, उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा के साथ ही षष्ठी देवी की पूजा की जाती है। षष्ठी माता संतानों की रक्षा करती हैं और उन्हें स्वस्थ और दीर्घायु बनाती हैं।
2. कौन हैं षष्ठी मैया और कैसे हुई इस देवी की उत्पत्ति? सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है। प्रकृति का 6ठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्ठी है। इन्हें ब्रह्मा की मानस पुत्री कहा गया है जबकि इनका एक नाम कात्यायनी भी है। इनकी पूजा नवरात्र में षष्ठी तिथि को होती है।
3. षष्ठी देवी की पूजा की शुरुआत कैसे हुई? प्रथम मनु स्वायम्भुव के पुत्र राजा प्रियव्रत ने संतान की इच्छा से पुत्रेष्टि यज्ञ किया जिसके बाद उनकी महारानी मालिनी ने एक पुत्र को जन्म दिया। लेकिन दुर्योग से वह शिशु मरा पैदा हुआ था। राजा का दु:ख देखकर एक दिव्य देवी प्रकट हुईं। उन्होंने उस मृत बालक को जीवित कर दिया। देवी की इस कृपा से खुश होकर उन्होंने षष्ठी देवी की स्तुति की। तभी से इस पूजा का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
4. इस पूजा में लोग पवित्र नदी के किनारे क्यों जमा होते हैं? पवित्र नदियों के जल से सूर्य को अर्घ्य देने और स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। इसीलिए छठ पूजा में सूर्य की पूजा में उन्हें जल से अर्घ्य देने का विधान है। छठ में नदी-तालाबों पर भीड़ बहुत बढ़ जाती है। इस भीड़ से बचने के लिए हाल के दशकों में घर में ही छठ करने का चलन तेजी से बढ़ा है।
5. ज्यादातर महिलाएं ही छठ पूजा क्यों करती हैं? छठ पूजा कोई भी कर सकता है, चाहे वह महिला हो या पुरुष। पर इतना जरूर है कि महिलाएं संतान की कामना से या संतान के स्वास्थ्य और उनके दीर्घायु होने के लिए यह पूजा अधिक बढ़-चढ़कर और पूरी श्रद्धा से करती हैं।
6. कार्तिक महीने के अलावा यह पूजा साल में कब की जाती है? कार्तिक माह के अलावा छठ व्रत चैत्र शुक्ल पक्ष में चतुर्थी से लेकर सप्तमी तक किया जाता है। इसे आम बोलचाल में चैती छठ कहते हैं।
7. इस पूजा में कुछ लोग जमीन पर बार-बार लेटकर, कष्ट सहते हुए घाट की ओर क्यों जाते हैं? आम बोलचाल की भाषा में इसे 'कष्टी देना' कहते हैं। ज्यादातर मामलों में ऐसा तब होता है, जब किसी ने इस तरह की कोई मन्नत मानी हो।
8. 4 दिनों तक चलने वाली छठ पूजा में किस-किस दिन क्या-क्या होता है? कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को व्रत की शुरुआत 'नहाय-खाय' के साथ होती है। इस दिन व्रत करने वाले और घर के सारे लोग चावल-दाल और कद्दू से बने व्यंजन प्रसाद के तौर पर ग्रहण करते हैं। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को शाम में मुख्य पूजा होती है। इसे 'खरना' कहा जाता है। प्रसाद के रूप में गन्ने के रस या गुड़ में बनी खीर चढ़ाई जाती है। कई घरों में चावल का पिट्ठा भी बनाया जाता है। लोग उन घरों में जाकर प्रसाद ग्रहण करते हैं जिन घरों में पूजा होती है। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी की शाम को अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती के साथ-साथ सारे लोग डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य देते हैं। चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी को उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पारण के साथ व्रत की समाप्ति होती है।
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